Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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विनय के आत्मसम्मान ने उन्हें रियासत का त्याग करने पर उद्यत तो कर दिया पर उनके सम्मुख अब एक नई समस्या उपस्थित हो गई। वह जीविका की चिंता थी। संस्था के विषय में तो विशेष चिंता न थी, उसका भार देश पर था, और किसी जातीय कार्य के लिए भिक्षा माँगना लज्जा की बात नहीं। उन्हें इसका विश्वास हो गया था कि प्रयत्न किया जाए, तो इस काम के लिए स्थायी कोष जमा किया जा सकता,किंतु जीविका के लिए क्या हो? कठिनाई यह थी कि जीविका उनके लिए केवल दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति न थी, कुल-परम्परा की रक्षा भी उसमें शामिल थी। अब तक इस प्रश्न की गुरुता का उन्होंने अनुमान न किया था। मन में किसी इच्छा के उत्पन्न होने की देर रहती थी और वह पूरी हो जाती थी। अब जो आँखों के सामने यह प्रश्न अपना विशद रूप धारण करके आया, तो वह घबरा उठे। सम्भव था कि अब भी कुछ काल तक माता-पिता का वात्सल्य उन्हें इस चिंता से मुक्त रखता, किंतु इस क्षणिक आधार पर जीवन-भवन का निर्माण तो नहीं किया जा सकता। फिर उनका आत्मगौरव यह कब स्वीकार कर सकता था कि अपनी सिध्दांत-प्रियता और आदर्श-भक्ति का प्रायश्चित्ता माता-पिता से कराएँ? कुछ नहीं, यह निर्लज्जता है, निरी कायरता! मुझे कोई अधिकार नहीं कि अपने जीवन का भार माता-पिता पर रखूँ। उन्होंने इस मुलाकात की चर्चा माता से भी न की, मन-ही-मन डूबने-उतराने लगे। और, फिर अब अपनी ही चिंता न थी, सोफिया भी उनके जीवन का अंश बन चुकी थी। इसलिए यह चिंता और भी दाहक थी। माना कि सोफी मेरे साथ जीवन की बड़ी-से-बड़ी कठिनाई सहन कर लेगी, लेकिन क्या यह उचित है कि उसे प्रेम का यह कठोर दंड दिया जाए? उसके प्रेम को इतनी कठिन परीक्षा में डाला जाए? वह दिन-भर इन्हीं में मग्न रहे। यह विषय उन्हें असाधय-सा प्रतीत होता था। उनकी शिक्षा जीविका के प्रश्न पर लेशमात्र भी धयान न दिया गया था। अभी थोड़े ही दिन पहले उनके लिए इस प्रश्न का अस्तित्व ही न था। वह स्वयं कठिनाइयों के अभ्यस्त थे। विचार किया था कि जीवन-पर्यंत सेवा-व्रत का पालन करूँगा। किंतु सोफिया के कारण उनके सोचे हुए जीवन-क्रम में कायापलट हो गई थी। जिन वस्तुओं का पहले उनकी दृष्टि में कोई मूल्य न था, वे अब परमावश्यक जान पड़ती थीं। प्रेम को विलास-कल्पना ही से विशेष रुचि होती है वह दु:ख और दरिद्रता के स्वप्न नहीं देखता। विनय सोफिया को एक रानी की भाँति रखना चाहते थे, उसे जीवन की उन समस्त सुख-सामग्रियों से परिपूरित कर देना चाहते थे, जो विलास ने आविष्कृत की हैं; पर परिस्थितियाँ ऐसा रूप धारण करती थीं, जिनसे वे उच्चाकांक्षाएँ मटियामेट हुई जाती थीं। चारों ओर विपत्तिा और दरिद्रता का ही कंटकमय विस्तार दिखाई पड़ रहा था। इस मानसिक उद्वेग की दशा में वह कभी सोफी के पास आते, कभी अपने कमरे में जाते, कुछ गुमसुम, उदास, मलिनमुख, निष्प्रभ, उत्साहहीन, मानो कोई बड़ी मंजिल मारकर लौटे हों। पाँड़ेपुर से बड़ी भयप्रद सूचनाएँ आ रही थीं, आज कमिश्नर आ गया, आज गोरखों का रेजिमेंट आ पहुँचा, आज गोरखों ने मकानों को गिराना शुरू किया, और लोगों के रोकने पर उन्हें पीटा, आज पुलिस ने सेवकों को गिरफ्तार करना शुरू किया, दस सेवक पकड़ लिए गए, आज बीस पकड़े गए, आज हुक्म दिया गया है कि सड़क से सूरदास की झोंपड़ी तक काँटेदार तार लगा दिया जाए, कोई वहाँ जा ही नहीं सकता। विनय ये खबरें सुनते थे और किसी पंखहीन पक्षी की भाँति एक बार तड़पकर रह जाते थे।

इस भाँति एक सप्ताह बीत गया और सोफी का स्वास्थ्य सुधरने लगा। उसके पैरों में इतनी शक्ति आ गई कि पाँव-पाँव बगीचे में टहलने चली जाती, भोजन में रुचि हो गई, मुखमंडल पर आरोग्य की कांति झलकने लगी। विनय की भक्तिपूर्ण सेवा ने उस पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त कर ली थी। वे शंकाएँ, जो उसके मन में पहले उठती रहती थीं, शांत हो गई थीं। प्रेम के बंधन को सेवा ने और भी सुदृढ़ कर दिया था। इस कृतज्ञता को वह शब्दों से नहीं, आत्मसमर्पण से प्रकट करना चाहती थी। विनयसिंह को दु:खी देखकर कहती, तुम मेरे लिए इतने चिंतित क्यों होते हो? मैं तुम्हारे ऐश्वर्य और सम्पत्ति की भूखी नहीं हूँ, जो मुझे तुम्हारी सेवा करने का अवसर न देगी, जो तुम्हें भावहीन बना देगी। इससे मुझे तुम्हारा गरीब रहना ज्यादा पसंद है। ज्यों-ज्यों उसकी तबीयत सँभलने लगी, उसे यह ख्याल आने लगा कि कहीं लोग मुझे बदनाम न करते हों कि इसी कारण विनय पाँड़ेपुर नहीं जाते, इस संग्राम में वह भाग नहीं लेते, जो उनका कर्तव्य है, आग लगाकर दूर खड़े तमाशा देख रहे हैं। लेकिन यह ख्याल आने पर भी उसकी इच्छा न होती थी कि विनय वहाँ जाएँ।
एक दिन इंदु उसे देखने आई। बहुत खिन्न और विरक्त हो रही थी। उसे अब अपने पति से इतनी अश्रध्दा हो गई थी कि इधर हफ्तों से उसने उनसे बात तक न की थी, यहाँ तक कि अब वह खुले-खुले उनकी निंदा करने से भी न हिचकती थी। वह भी उससे न बोलते थे। बातों-बातों में विनय से बोली-उन्हें तो हाकिमों की खुशामद ने चौपट किया, पिताजी को सम्पत्तिा-प्रेम ने चौपट किया, क्या तुम्हें भी मोह चौपट कर देगा? क्यों सोफी, तुम इन्हें एक क्षण के लिए भी कैद से मुक्त नहीं करतीं? अगर अभी से इनका यह हाल है, तो विवाह हो जाने पर क्या होगा! तब तो यह कदाचित् दीन-दुनिया कहीं के भी न होंगे; भौंरे की भाँति तुम्हारा प्रेम-रस-पान करने में उन्मत्ता रहेंगे।
सोफिया बड़ी लज्जित हुई, कुछ जवाब न दे सकी। उसकी यह शंका सत्य निकली कि विनय की उदासीनता का कारण मैं ही समझी जा रही हूँ।
लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं है कि विनय अपनी सम्पत्तिा की रक्षा के विचार से मेरी बीमारी का बहाना लेकर इस संग्राम से पृथक् रहना चाहते हों? यह कुत्सित् भाव बलात् उसके मन में उत्पन्न हुआ। वह इसे हृदय से निकाल देना चाहती थी, जैसे हम किसी घृणित वस्तु की ओर से मुँह फेर लेते हैं। लेकिन इस आक्षेप को अपने सिर से दूर करना आवश्यक था। झेंपते हुए बोली-मैंने तो कभी मना नहीं किया।
इंदु-मना करने के कई ढंग हैं।
सोफिया-अच्छा, तो मैं आपके सामने कह रही हूँ कि मुझे इनके वहाँ जाने में कोई आपत्तिा नहीं है, बल्कि इसे मैं अपने और इनके दोनों ही के लिए गौरव की बात समझती हूँ। अब मैं ईश्वर की दया और इनकी कृपा से अच्छी हो गई हूँ, और इन्हें विश्वास दिलाती हूँ कि इनके जाने से मुझे कोई कष्ट न होगा। मैं स्वयं दो-चार दिन में जाऊँगी।
इंदु ने विनय की ओर सहास नेत्रों से देखकर कहा-लो, अब तो तुम्हें कोई बाधा नहीं रही? तुम्हारे वहाँ रहने से सब काम सुचारु रूप से होगा, और सम्भव है कि शीघ्र ही अधिकारियों को समझौता कर लेना पड़े। मैं नहीं चाहती कि उसका श्रेय किसी दूसरे आदमी के हाथ लगे।

लेकिन जब इस अंकुश का भी विनय पर कोई असर न हुआ, तो सोफिया को विश्वास हो गया कि इस उदासीनता का कारण सम्पत्तिा-लालसा चाहे हो, लेकिन प्रेम नहीं है। जब इन्हें मालूम है कि इनके पृथक् रहने से मेरी निंदा हो रही है, तो जानबूझकर क्यों मेरा उपहास करा रहे हैं? यह तो ऊँघते को ठेलने का बहाना हो गया। रोने को थे ही, आँखों में किरकिरी पड़ गई। मैं उनके पैर थोड़े ही पकड़े हुए हूँ। वह तो अब पाँड़ेपुर का नाम तक नहीं लेते, मानो वहाँ कुछ हो ही नहीं रहा है। उसने स्पष्ट नहीं लेकिन सांकेतिक रीति से विनय को वहाँ जाने की प्रेरणा भी की, लेकिन वह फिर टाल गए। वास्तव में बात यह थी कि इतने दिनों तक उदासीन रहने के पश्चात् विनय अब वहाँ जाते हुए झेंपते थे, डरते थे कि कहीं मुझ पर लोग तालियाँ न बजाएँ कि डर के मारे छिपे बैठे रहे। उन्हें अब स्वयं पश्चात्ताप होता था कि मैं क्यों इतने दिनों तक मुँह छिपाए रहा, क्यों अपनी व्यक्तिगत चिंताओं को अपने कर्तव्य-मार्ग का काँटा बनने दिया? सोफी की अनुमति लेकर मैं जा सकता था, वह कभी मुझे मना न करती। सोफी में एक बड़ा ऐब यह है कि मैं उसके हित के लिए भी जो काम करता हूँ, उसे भी वह निर्दय आलोचक की दृष्टि से ही देखती है। खुद चाहे प्रेम के वश कर्तव्य की तृण-बराबर भी परवाह न करे, पर मैं आदर्श से जौ-भर नहीं टल सकता। अब उन्हें ज्ञात हुआ कि यह मेरी दुर्बलता, मेरी भीरुता और मेरी अकर्मण्यता थी जिसने सोफिया की बीमारी को मेरे मुँह छिपाने का बहाना बना दिया, वरना मेरा स्थान तो सिपाहियों की प्रथम श्रेणी में था। वह चाहते थे कि कोई ऐसी बात पैदा हो जाए कि मैं इस झेंप को मिटा सकूँ-इस कालिख को धो सकूँ। कहीं दूसरे प्रांत से किसी भीषण दुर्घटना का समाचार आ जाए, और वहाँ अपनी लाज रखूँ। सोफिया को अब उनका आठों पहर अपने समीप रहना अच्छा न लगता। हम बीमारी में जिस लकड़ी के सहारे डोलते हैं, नीरोग हो जाने पर उसे छूते तक नहीं! माँ भी तो चाहती है कि बच्चा कुछ देर जाकर खेल आए। सोफी का हृदय अब भी विनय को आँखों से परे न जाने देना चाहता था, उन्हें देखते ही उसका चेहरा फूल के समान खिल उठता था, नेत्रों में प्रेम-मद छा जाता था, पर विवेक-बुध्दि उसे तुरंत अपने कर्तव्य की याद दिला देती थी। वह सोचती थी कि जब विनय मेरे पास आएँ तो मैं निष्ठुर बन जाऊँ, बोलूँ ही नहीं, आप चले जाएँगे; लेकिन यह उसकी पवित्र कामना थी। वह इतनी निर्दय, इतनी स्नेह-शून्य न हो सकती थी। भय होता था, कहीं बुरा न मान जाएँ। कहीं यह न समझने लगें कि इसका चित्ता चंचल है, यह स्वार्थपरायण है, बीमारी में तो स्नेह की मूर्ति बनी हुई थी, अब मुझसे बोलते भी जबान दुखती है। सोफी! तेरा मन प्रेम में बसा हुआ है, बुध्दि यश और कीर्ति में। और इन दोनों में निरंतर संघर्ष हो रहा है।

संग्राम को छिड़े हुए दो महीने हो गए। समस्या प्रतिदिन भीषण होती जाती थी, स्वयंसेवकों की पकड़-धकड़ से संतुष्ट न होकर गोरखों ने अब उन्हें शारीरिक कष्ट देना शुरू कर दिया था, अपमान भी करते थे और अपने अमानुषिक कृत्यों से उनको भयभीत कर देना चाहते थे। पर अंधो पर बंदूक चलाने या झोंपड़े में आग लगाने की हिम्मत न पड़ती थी। क्रांति का भय न था, विद्रोह का भय न था, भीषण-से-भीषण विद्रोह भी उनको आशंकित न कर सकता था, भय था हत्याकांड का, न जाने कितने गरीब मर जाएँ, न जाने कितना हाहाकार मच जाए! पाषाण हृदय भी एक बार रक्तप्रवाह से काँप उठता है।

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